
कानपुर फर्टिलाइजर एंड केमिकल्स लिमिटेड (केएफसीएल), जो “चांद छाप” और “भारत छाप” यूरिया के लिए जानी जाती है, एक गहरे संकट में फंस गई है। 1 अप्रैल, 2025 से इसका पनकी स्थित प्लांट पूरी तरह बंद हो गया है। पिछले साल दिसंबर 2024 से लेकर अब तक गैस आपूर्ति ठप होने, बिजली कटौती और सब्सिडी में देरी जैसे कई झटकों ने कंपनी को इस हालत में पहुंचा दिया। इससे न सिर्फ कंपनी को 110 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ, बल्कि 7,000 से ज्यादा कर्मचारियों और उनके परिवारों की आजीविका खतरे में पड़ गई है। आइए इस संकट की पूरी कहानी समझते हैं।
संकट की जड़: गेल और केस्को का दबाव
पिछले साल 18 दिसंबर, 2024 को गैस अथॉरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड (गेल) ने बकाया भुगतान के चलते गैस आपूर्ति बंद कर दी। इससे 1.10 लाख टन यूरिया का उत्पादन रुक गया, जिससे कंपनी को भारी नुकसान उठाना पड़ा। दिसंबर 2024 और जनवरी 2025 में गेल को 538 करोड़ रुपये का भुगतान किया गया, लेकिन गेल ने एकतरफा शर्तें बदलकर अतिरिक्त 120 करोड़ रुपये वसूल लिए। दूसरी ओर, कानपुर इलेक्ट्रिसिटी सप्लाई कंपनी (केस्को) ने बकाया बिल के लिए 12 मार्च और 26 मार्च, 2025 को बिजली काटने की कोशिश की। दोनों बार उत्पादन कम करना पड़ा, जिससे और नुकसान हुआ। मार्च में केस्को को 115 करोड़ रुपये का भुगतान भी किया गया, जो पिछले 10 सालों में एक महीने का सबसे बड़ा भुगतान था।
सब्सिडी का संकट
केंद्र सरकार की ओर से सब्सिडी के लिए तय एनर्जी मानक 31 मार्च, 2025 को खत्म हो गया, और इसका नवीनीकरण अभी तक नहीं हुआ। मौखिक रूप से संकेत मिला है कि मानक और सख्त हो सकते हैं, जिससे प्रति टन यूरिया पर नुकसान बढ़ेगा। साथ ही, 2013 से यूरिया की लागत 3326 रुपये प्रति टन तय है, जिसमें कोई बढ़ोतरी नहीं हुई। मुद्रास्फीति के कारण लागत में 92% की वृद्धि हुई है, जिसका बोझ केएफसीएल पर पड़ा। पिछले एक साल में इससे 200 करोड़ रुपये का अतिरिक्त नुकसान हुआ।
कर्मचारियों पर असर
केएफसीएल में पहले 1000 से ज्यादा तकनीशियन और इंजीनियर थे, लेकिन अब सिर्फ 1300-1400 कर्मचारी बचे थे। प्लांट बंद होने से इनके सामने रोजगार का संकट खड़ा हो गया है। एटक के सचिव असित कुमार सिंह ने इसे श्रम कानूनों का उल्लंघन बताया, क्योंकि बंदी की सूचना श्रम विभाग को भी नहीं दी गई। प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से 7,000 से ज्यादा लोग प्रभावित हुए हैं।
प्लांट का इतिहास और पुनर्जनन
1967 में शुरू हुआ यह प्लांट पहले डंकन इंडस्ट्रीज के अधीन था और 2002 में बंद हो गया था। जेपी ग्रुप ने 2012-2015 के बीच 1500 करोड़ रुपये लगाकर इसे पुनर्जनन किया। नेफ्था से प्राकृतिक गैस में बदलाव कर पिछले 10 सालों में यह 90% क्षमता पर चल रहा था। गेल को अब तक 17,000 करोड़ रुपये का भुगतान किया जा चुका है, फिर भी गैस आपूर्ति बंद कर दी गई।
क्यों लिया गया बंदी का फैसला?
केएफसीएल के चेयरमैन ने बताया कि प्रधानमंत्री के “आत्मनिर्भर भारत” आह्वान के तहत उत्पादन जारी रखा गया था। लेकिन चार महीने की मुश्किल परिस्थितियों और सब्सिडी मानकों के अभाव में बंदी के सिवा कोई रास्ता नहीं बचा। सभी कर्मचारियों को बकाया राशि का भुगतान जल्द किया जाएगा।
आगे क्या?
केएफसीएल का यह संकट न सिर्फ कंपनी, बल्कि उत्तर प्रदेश और बिहार के किसानों के लिए भी चिंता का विषय है, जो इसकी यूरिया पर निर्भर हैं। पिछले तीन महीनों में गेल और केस्को के दबाव में 200 करोड़ रुपये से ज्यादा खर्च हुए, और कुल नुकसान 300 करोड़ रुपये से अधिक हो गया। अगर सब्सिडी और गैस आपूर्ति की समस्या हल नहीं हुई, तो यह प्लांट दोबारा शुरू होना मुश्किल लगता है।
निष्कर्ष:
केएफसीएल का बंद होना एक औद्योगिक इकाई की हार नहीं, बल्कि नीतिगत खामियों और वित्तीय दबावों की कहानी है। क्या सरकार और संबंधित पक्ष इस संकट का समाधान करेंगे? यह समय बताएगा।